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Showing posts from October, 2021

दुश्मन भारत

  यह पोस्ट लिखना नहीं चाहता था परंतु 13-14 साल हो गए हृदय को मथे डाल रही है। 2006-07 में झाँसी से स्थानांतरित होकर मुंबई आया था। झा साहब की मेज पर एक आमंत्रण पत्र देखा, जो प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा और एक संस्था की ओर से भी था। कार्यक्रम नेहरू प्लेनेटोरियम में था। मैंने उनसे अनुमति लेकर कार्ड देखा, उसमें विविध कार्यक्रम थे, नाटक व कवि-सम्मेलन भी। कवि सम्मेलन में आदरणीय श्री लीलाधर मंडलोई जी भी पधार रहे थे। जहाँ तक मुझे याद है उस समय वे प्रसार भारती के महानिदेशक थे। उनका नाम देखकर कार्यक्रम में जाने की उत्कंठा बढ़ गई। हालांकि उस समय मैं पनवेल में रहता था। फिर भी हिम्मत नहीं हारी और झा साहब से अनुरोध किया कि मैं भी कार्यक्रम में चलूंगा। खैर उनके साथ गया। कार्यालय कार्य के बाद झा साहब का व्यवहार बहुत मृदु और आत्मीय था। कार्यक्रम के बीच में चायपान के लिए कुछ समय के लिए प्रकाश हुआ तो आसपास बैठे लोग आपसी बातचीत में लग गए। मेरे पास दो महिलाएँ बैठी थीं। मैं उनसे बात करने लगा। उन्होंने बताया कि वे पाकिस्तान से आई है और वहाँ पर शिक्षक हैं। मैंने वहाँ शिक्षा और पाठ्यक्रम के बारे में पूछा तो वे दुख

झरोखे ,,(१)

 वर्ष 1985 की अप्रैल की एक तारीख, मुंबई वीटी के पास कचहरी की कैंटीन, लंच का समय, वह अपने बॉस के सामने बैठा कोल्डड्रिंक पी रहा था। वे कह रहे थे कि वो सा...चाहती है कि आज ही उससे शादी कर लूँ, जबकि वह आज ही अपने भाई के लिए लड़की देखने पंजाब मेल से आगरा जा रही है। थोड़ी देर बाद वह आ गई। बहुत तनाव में थी। बॉस ने उसके सामने एक फार्म रखा और उससे कहा कि उस फार्म में विटनेस की जगह हस्ताक्षर कर दे।  फार्म कोर्ट मैरिज का था। फार्म एकदम रिक्त था। उसने कहा कि इसमें कोई नाम ही नहीं है तो विटनेस किसका। तो उन्होंने सभी कॉलम भर दिए । उसके हस्ताक्षर वाला फार्म लेकर वह चली गई। लंच समय समाप्त हो गया था और वह ऑफिस में आ गया। करीब एक महीने बाद पता चला कि बॉस के खिलाफ बलात्कार की रिपोर्ट पुलिस में लिखवाई गई है, जिसमें उसका नाम भी था। मैं सोचता रहा कि उसका नाम क्यों? और बलात्कार।

पं. रामकिंकर उपाध्याय -२

 पंडित रामकिंकर उपाध्याय जी पूछा कि मैं अपने आपको जानना चाहता हूँ, मेरा जन्म क्यों हुआ? इसी रूप में क्यों हुआ? और जीवन का उद्देश्य क्या है? वे सुनकर गंभीर हो गए। कुछ देर मौन रहकर बोले, इस सबके लिए साधना करनी पड़ेगी। मैंने कहा कि मैं प्रस्तुत हूँ, मैंने हाई स्कूल पास कर लिया है, उम्र भी कोई ज्यादा नहीं है और न कोई जिम्मेदारी है मेरे ऊपर इसलिए मैं साधना कर सकता हूँ। वे मौन हो गए और बोले इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे। हम दोनों पैदल जन्मभूमि के लिए चल दिए। मेरे पास साइकिल थी पर उनके साथ रहते हुए साइकिल पर कैसे बैठ सकता था। यह बात करीब 1969-70 की होगी। पंडित जी प्रवचन करके चले गए और मैं उदरपूर्ति के लिए भरतपुर चला गया। फिर पंडित जी से मुलाकात तो हुई पर बात करने का अवसर नहीं मिला। और वे प्रश्न आज भी मेरे जेह्न में हैं। सत्येंद्र सिंह

पं.रामकिंकर उपाध्याय

 पं. रामकिंकर उपाध्याय, मानस मार्तंड, रामायण व रामचरित मानस के लब्धप्रसिद्ध प्रवचनकार, श्रीकृष्ण-जन्मस्थान-सेवासंघ के अनुरोध पर श्री कृष्ण जन्मभूमि मथुरा में प्रवचन करने आते थे। कभी एक सप्ताह के लिए तो कभी दो सप्ताह के लिए, परंतु उनकी विशेषता यह थी कि पूरे समय एक ही पात्र पर प्रवचन करते थे जैसे हनुमान जी, प्रभु रामचंद्र, सीता जी, एक सप्ताह या दो सप्ताह एक ही पात्र पर बोलते थे और वेद, उपनिषद, पुराण आदि से उद्धरण दिया करते। सुनने वाले अभिभूत सुनते रहते। उनसे अच्छा रामायण प्रवचनकार मैंने अपने जीवन में नहीं देखा न सुना। करपात्री जी का नाम सुना था परंतु उनके प्रवचन सुनने का कभी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। उपाध्याय जी को सुनने का सौभाग्य भी इसलिए मिल सका क्योंकि मैं उदरपूर्ति के श्रीकृष्ण-जन्मस्थान-सेवासंघ में बतौर टंकक लिपिक काम करता था। एक बार ऐसा हुआ कि मैं आर अम एस में डाक डालकर जन्मभूमि लौट रहा था कि पं उपाध्याय जी बाज़ार में टहलते हुए मिल गए। वे प्रवचन के लिए पूजा करने से पहले एक दो घंटे अकेले टहलते थे। मैंने उनके सामने साइकिल रोकी, साइकिल से उतरा और उनसे कहा कि पंडित जी आपसे कुछ बात करन

सकार

 मैं एक उद्योगपति का स्टेनो था। मुझे डिक्टेशन में बोला जाता कि हुंडी सकार ली गई है, परंतु मैं सकार को कभी समझ नहीं पाया। यह सकार शब्द हिंदी का है, उर्दू का है या संस्कृत का, नहीं जानता था और न आज जानता हूँ। लेकिन, कुछ दिनों से सकारात्मक और नकारात्मक सोच जैसे शब्दों के बहु प्रयोग से यही समझ में आता है कि सकार स्वीकार के लिए और नकार अस्वीकार के लिए है। परंतु हुंडी सकारने का अर्थ अलग ही था, ऐसा मैं आज भी मानता हूँ परंतु सच में समझता नहीं।       आजकल हिंदी साहित्य में देख रहा हूँ - सकारात्मक कहानी या कविता। मेरी समझ में तो यही आता है कि सकारात्मक अंग्रेजी शब्द पॉजिटिव का अर्थ है और नकारात्मक नेगेटिव का। परंतु हुंडी सकारने से अंग्रेजी के उक्त शब्द वह अर्थ नहीं दे पाते, जो व्यापार में होता था। हालांकि, उद्योगपति की नौकरी छोड़ने के बाद मैंने भी सकार पर ध्यान नहीं दिया, परंतु सकारात्मक कहानी शब्द ने सोचने पर विवश कर दिया। आशा है, कुछ विद्वान मेरा मार्गदर्शन अवश्य करेंगे। सत्येंद्र सिंह

यादों में नीरज जी

 बात उन दिनों की है जब मैं रेल सुरभि, मध्य रेल की गृह पत्रिका का चयनित सहायक संपादक के पद पर कार्यरत था। मेरी मुंहबोली बहन सुमन सरीन धर्मयुग (तत्कालीन प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका) में बतौर उप संपादक कार्यरत थी। वे लंच समय में टाइम्स भवन से मेरे पास महाप्रबंधक कार्यालय राजभाषा विभाग में लमच के लिए आती थीं। उनके साथ उनके कई साथी भी आते थे। उनके साथियों में कैलाश सैंगर का नाम विशेष उल्लेखनीय है, क्योंकि आगे चल कर उन दोनों का विवाह हुआ। उनके विवाह के समय तो मैं स्थानांतरित होकर जबलपुर चला गया था। लेकिन बात उससे पहले की है।       उन दिनों मैं कल्याण में रहता था। सुमन बहन ने कहा कि वे अँधेरी में एक कवि सम्मेलन करने जा रहे हैं और उसमें मुझे उपस्थित ही रहना है, क्योंकि उसमें नीरज जी आ रहे हैं।। आग्रह टालने का तो प्रश्न था ही नहीं। मैं वीटी से कल्याण न जाकर सीधे अँधेरी के उस स्कूल के ग्राउंड में पहुँच गया, जहाँ कवि सम्मेलन का आयोजन था। पहुँचा तो सुमन और कैलाश जी उपस्थित थे। वैसे उपस्थिति बहुत कम थी। उन दोनों ने मुझसे कहा कि वे तो कवि सम्मेलन में व्यस्त रहेंगे, इसलिए मुझे नीरज जी का ध्यान रखना

यादों के झरोखे से

  यादों के झरोखे से                मेरी हिंदी सेवा और मेरी यादें                                                   मैं उन दिनों "रेल सुरभि" का उप संपादक था। मध्य रेल पर संघ लोक सेवा आयोग से चयनित प्रथम हिंदी अधिकारी डॉ विजय कुमार मल्होत्रा (पूर्व निदेशक राजभाषा रेलवे बोर्ड) थे। उन्होंने ही "रेल सुरभि" पत्रिका की शुरुआत की। योजना बनाने के लिए कार्यालय समय के बाद वी टी केफेटेरिया में, जो बुकिंग कार्यालय के ऊपर दूसरे मआलए पर रिटायरिंग रूम के पास था, बैठक हुआ करती। बैठक में मल्होत्रा साहब के साथ तत्कालीन मुख्य सतर्कता निरीक्षक आई.एन. आर्य के अलावा हिंदी विभाग के राम शंकर चौधरी, वीणा टंडन (बाद में पृथी), रानी भाटिया (सीमा आसवानी), आर.डी.चौहान और आशा मिश्रा रहती। ऐसे ही किसी बैठक में पत्रिका का नाम "रेल सुरभि" रखा गया। प्रथम अंक भी प्रकाशित हुआ जिसके संपादक स्वयं विजय कुमार मल्होत्रा जी थे। इसके बाद वे सिकंदराबाद चले गए और उनके स्थान पर बलराज सिंह सिरोही आए। सिरोही जी भी संघ लोकसेवा आयोग से चयनित प्रथम श्रेणी हिंदी अधिकारी थे। वास्तव में उक्त दोनों अधिकारी सं

कविता - स्त्रियाँ

 स्त्रियाँ क्यों हर बार दांव पर लगी होती हैं सत्ता दंभ बेअदबी की शिकार होती हैं झूठी शान और जीत के नाम पर उनका शरीर, मन और आत्मा क्यों हमेशा कुर्बान होती हैं। पैदा होते ही दफन करना जिए तो सजना संवरना रोकना घूंघट में चेहरा छिपा रखना बालपन में विवाह करना उनकी इच्छाओं की बलि देना विधवा हो तो जीने न देना पति हार जाए तो जौहर करना विरोधी जीत जाए तो उसकी हवश का शिकार होना क्यों उन पर ही लागू होता है। सोचते समझते थे हम सब  ये इतिहास की बातें हैं पर स्त्रियां आज भी वैसी ही हैं समाज के नाम पर देश के नाम पर  सत्ता के नाम पर  जीत के नाम पर और धर्म के नाम पर स्त्रियां आज भी कुर्बान हैं देख लो यह तालिबान है। इसीलिए अब लोग सिद्ध कर रहे हैं स्त्रियों को दबाए रखने की रीतियां कि क्यों होता था बाल विवाह क्यों होता था जौहर क्यों जलाते थे चिता पर जिंदा क्योंकि उनकी इज्जत की फिक्र थी। आदमी को जन्म देने वाली समाज को रचाने वाली देश को चलाने वाली धर्म को बनाने वाली स्त्रियां कब तक जलेंगी कब तक मरती रहेंगी स्त्रियां कब तक  कुर्बानी देती रहेगी।                      सत्येंद्र सिंह,                     पुणे, महारा

बेठे ठाले

                        आजकल सबसे वाट्सएप पर ही बातचीत होती है। फोन पर भी कम हो गई हैं। पड़ोसी से कुछ कहना हो तो मैसेज, नौकरी पेशा पति पत्नी वाट्सएप पर मैसेज डाल कर निकल जाते हैं।  लेकिन इसमें महामारी के कारण व्यवधान आ गया है। जिस तरीके से वाट्सएप फेसबुक पर संदेश मिलते हैं, उससे ऐसा लगता है कि हर व्यक्ति दूसरे के लिए परेशान है। जैसे अपनी तो कोई चिंता ही नहीं। अखबार में कोई समाचार देखा झट से कटिंग वाट्सएप ग्रुप पर, फेसबुक पर  उपलब्ध और व्यक्तिगत रूप से भी मोबाइल पर। कहीं से कोई नुस्खा मिल गया, तो तुरंत वाट्सएप पर। और तो और अपने धर्म, अपने समाज के पक्ष में और दूसररे के विरुद्ध कोई मैसेज हो तो बिना उसकी सच्चाई जाने तो दनादन फारवर्डिंग। जल्दी से जल्दी वाट्सएप पर जैसे वे ज्ञान नहीं देंगे तो सब अज्ञानी रह जाएंगे और लोगों का बहुत नुकसान हो जाएगा। मेरे एक मित्र हैं राम कृष्ण भडभडे। वे इस काम में बहुत माहिर हैं और उनका अधिकांश समय इसी कार्य में बीत जाता है। कोई उनसे पूछता है कि भडभडे साहब आप इतनी मेहनत करके मैसेज डालते हैं कोई उन्हें पढ़ता भी है। वे बड़े गर्व से कहते हैं, भाई मैं तो अपना कर्त

यादों के झरोखे से - बेधड़क बनारसी

  मैं उन दिनों "रेल सुरभि" का उप संपादक था। मध्य रेल पर संघ लोक सेवा आयोग से चयनित प्रथम हिंदी अधिकारी डॉ विजय कुमार मल्होत्रा (पूर्व निदेशक राजभाषा रेलवे बोर्ड) थे। उन्होंने ही "रेल सुरभि" पत्रिका की शुरुआत की। योजना बनाने के लिए कार्यालय समय के बाद वी टी केफेटेरिया में, जो बुकिंग कार्यालय के ऊपर दूसरे मआलए पर रिटायरिंग रूम के पास था, बैठक हुआ करती। बैठक में मल्होत्रा साहब के साथ तत्कालीन मुख्य सतर्कता निरीक्षक आई.एन. आर्य के अलावा हिंदी विभाग के राम शंकर चौधरी, वीणा टंडन (बाद में पृथी), रानी भाटिया (सीमा आसवानी), आर.डी.चौहान और आशा मिश्रा रहती। ऐसे ही किसी बैठक में पत्रिका का नाम "रेल सुरभि" रखा गया। प्रथम अंक भी प्रकाशित हुआ जिसके संपादक स्वयं विजय कुमार मल्होत्रा जी थे। इसके बाद वे सिकंदराबाद चले गए और उनके स्थान पर बलराज सिंह सिरोही आए। सिरोही जी भी संघ लोकसेवा आयोग से चयनित प्रथम श्रेणी हिंदी अधिकारी थे। वास्तव में उक्त दोनों अधिकारी संघ लोकसेवा आयोग से चयनित प्रथम पैनल के अधिकारी थे और मध्य रेल को दोनों की सेवाएं प्राप्त होने का गौरव प्राप्त है।    

लघुलेख - शांति और समस्या

 लघुलेख                     शांति और समस्या        मानव जीवन में समस्या प्रकृति नहीं पैदा करती वरन् प्रकृति विरोध करता है। सहज जीवन जटिल होता जा रहा है। एक दूसरे पर अधिकार की आकांक्षा प्रबल होती जा रही है। अधिकार ज़मीन जायदाद का ही नहीं विचारों का भी होता है।  सत्य, सत्य है, उसे सिद्ध करने की क्या आवश्यकता? पर सिद्ध करने की होड़ लगी है और मेरा तेरा सत्य में सत्य को विभाजित कर दिया गया प्रतीत होता है। आज देश ही नहीं अपितु समूचा विश्व बहुत बड़े संकट के दौर से गुज़र रहा है।  हमारे देश की सरकारें  महामारी और आर्थिक मंदी से बचाने के लिए जी जान से कोशिश कर रहीं हैं। संकट के समय भारत की सामूहिक शक्ति एक मिसाल बन जाती है। हम जनता का सौभाग्य है कि मोदी जी जैसे देश को प्रधानमंत्री मिले हैं तो एक से बढ़कर एक मुख्य मंत्री मिले हैं। लोकतंत्र किसे कहते हैं, यह जानने के लिए भारत को देखा जाए, जहां राजनीतिक मतभेद भी हैं, आरोप प्रत्यारोप भी हैं और संकट से उबरने की उत्कट अभिलाषा भी है।       इसी प्रकार मानव हृदय में शांति पैदा नहीं की जाती, वह तो स्वभाव गत है। पैदा तो अशांति की जाती है या यूं कहें कि हो

लघुकथा, महोदय

                        महोदय वे आए, इधर उधर देखा। दीवारों, छत को घूरा। हूँ की एक हुंकार भरी।  घर वाले अवाक्, कुछ सोचने समझने से परे किंकर्तव्यविमूढ़।   ओ गुड, गुड, की आवाज सुन कर पहले चौंके, फिर कुछ आश्वस्त हुए और चेत आने पर महोदय को सहर्ष संबोधित करने लगे - आइए सर, खाने की मेज इधर है। और घर मालिक आगे रास्ता बताते और शेष उनके पीछे चलने लगे। महोदय ने पीछे वालों पर एक नज़र मारकर आश्वस्ति की लंबी सांस भरी।     सत्येंद्र सिंह

अतीत के झरोखे से

 मैं 1981 में मध्य रेल मुख्यालय मुंबई वीटी अब छशिट आया झाँसी से ट्रांसफर हो कर। ज्यादातर रहने के खोली कल्याण व उसके आसपास ही मिलती थी।  पदस्थापना मुंबई मंडल पर हुई, जहाँ  उषा राजपूत से मुलाकात हुई। वह मथुरा की है इसलिए उसके जरिए कल्याण में कमरा मिल गया। अब कल्याण से वीटी अर्थात सीएसटीएम तक आने जाने का सिलसिला लोकल से शुरू हो गया। कल्याण से वीटी तक जो लोकल चलती थीं वे ठाणे तक स्लो थी और सुबह आठ बजे छूटती थी। इसलिए मैं कसारा या कर्जत से आने वाली फास्ट  लोकल पकड़ता था। एक दिन कर्जत लोकल में मैंने शुक्ला जी को ताश खेलते देखा। शुक्ला जी का पूरा नाम जयकरण शुक्ल था और वे बहुत अच्छे अनुवादक थे। मुझसे बड़ प्रेम करते थे। तो उनके डब्बे में घुसकर उनके पास पहुँचने की कोशिश करता और वे मुझे या उनके मित्र बीच यात्रा में बैठने के जगह दे देते थे। एक घंटे खडे़ खड़े यात्रा करने में दस मिनट का बैठना इतना राहत देता कि कहते नहीं बनता।        दो चार दिन बाद, एक बार अचानक ऐसा हुआ कि मैं लोकल के डब्बे में जैसे ही चढ़ा और गाड़ी खिसकी तो किसी ने पीछे से मेरे सिर पर जोर से चपत लगाई और देखने के लिए जैसे ही घूमा तो

सोच विचार और प्रगति

 आजकल हर कोई किसी के बारे में कह देता है कि अमुक की सोत छोटी या बड़ी है। आखिर सोत होती क्या है। क्या विचार करना सोच होती है? क्या सोचना ही सोच है? किसी के बारे में राय बनाना सोच होती है? और हम दूसरों के बारे में सोचते ही क्यों है ंं दूसरा हमारे सामने जैसा आता है, उसी के अनुरूप हमारे मन में विचार आता है उसके बारे में। विचार आना मस्तिष्क की एक प्रक्रिया है। जो विचार अच्छे होते हैं,  सभी के लिए हितकर हों, सभी के दिलों को जोड़त। हों, प्रेम पैदा करते हैं, ऐसे विचार ही  उच्च कहलाते हैं। मैं समझता हूँ कि जिसके विचार उच्च होते हैं, उसी की सोच अच्छी होती है। सोच का मतलब किसी व्यक्ति व वस्तु के बारे में सोचना। इस सोच विचार का प्रतिफल प्रगति होती है। गति भी तीन स्तर की होती है - सामान्य, अधोगति व ऊर्ध्व गति। ऊर्ध्व गति ही प्रगति होती है। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि अपनी सोच विचार को उच्च स्तर का बनाए रखते हुए प्रगति पथ पर सदा गतिमान रहें। सत्येंद्र सिंह।

किसान और आंदोलन

 किसानों द्वारा आंदोलन किए जाने की बात कोई नई नहीं है, परंतु इस समय जो आंदोलन चल रहा है और उसमें जो घटनाएं घट रही हैं वे सोचने पर विवश करती हैं कि कृषि जैसे पवित्र व्यवसाय में हिंसा को स्थान कैसे मिल गया और किसान आंदोलन पर राजनीति क्यों होने लगी। यह सत्य है कि भारत में राजनीतिक सत्ता परिवर्तन हुआ है और परिवर्तन के दौर में कुछ परिवर्तन तो आएगा ही, लेकिन पक्ष विपक्ष के प्रति जनप्रक्रिया भी देखने योग्य है। इस प्रक्रिया का अभी कोई हल तो नहीं दिख रहा है परंतु जाति धर्म,देश प्रदेश,  विचार और अभिव्यक्ति पटल पर काफी परिवर्तन देखने को मिलेगा, ऐसा अवश्य प्रतीत होता है। सत्येंद्र सिंह

आज की मुलाकात

 श्री के.पी.सत्यानंदन पूर्व निदेशक राजभाषा रेल मंत्रालय ने मुझे ब्लॉग बनाने और लिखने के लिए प्रेरित किया था, परंतु मैं कुछ अधिक लिख नहीं पाया। डॉ वीरेंद्र कुमार मिश्र, मुंबई ने आज मेरा परिचय डॉ.प्रवीण चोपड़ा, मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, भायखला, मुंबई से परिचय कराया। उनसे बात करके मुझे बहुत अच्छा लगा। यह जानकर तो और भी अच्छा लगा कि वे ब्लॉग लेखक हैं। बड़ प्यारे प्यारे गीत उन्होंने अपने ब्लॉग में शेयर किए हैं। आज मेरे अपने फिल्म का एक गीत सुनने को मिला। फिल्म तो 1973-74 की है, परंतु खास बात यह है कि उस गीत को डैनी पर फिल्माया गया है। डैनी साहब को स्क्रीन पर गाते हुए बहुत कम देखा है। इस तरह आज की डॉ. प्रवीण चोपड़ा जी से हुई मुलाकात मेरे लिए बहुत ही प्रेरणादायक सिद्ध हुई है।  सत्येंद्र सिंह