होली और श्रीकृष्ण

                                      

     होली विशेषकर रंगों की होली, आनंद की होली ब्रज में श्रीकृष्ण से शुरू होकर पूरे विश्व में फैल गई।  वैसे तो होली की मुख्य कहानी प्रहलाद और होलिका की है, शिवजी द्वारा कामदेव को भस्म करने और जीवित करने की है परंतु रंगों से सामने वाले को सराबोर कर देना श्री कृष्ण से ही शुरू हुई। श्री कृष्ण जब राधाजी के रूप से चिढते हैं, पूतना को मार उसके विषपान से और काले हो जाते हैं तो स्वयं गोरा होने का प्रयास नहीं करते वरन् राधाजी के गोरेपन की शिकायत यशोदा जी से करते हैं। माँ कह देती हैं कि जा तू राधा के मुँह पर कोई भी रंग मल दे। और अपनी मित्र मंडली के साथ दौड़ लगा देते हैं बरसाने की ओर। राधाजी और अन्य गोपियों को विभिन्न रंगों से रँग देते हैं। गोपियाँ कहाँ पीछे रहने वाली थीं, वे भी कृष्ण का कालापन दूर करने में लग जाती हैं और वर्ष में एक दिन एक दूसरे पर रंग डालने की प्रथा होली बन जाती है।
      लेखकों कवियों ने श्रीकृष्ण और राधा जी की लीलाओं पर खूब लिखा, आज भी लिख रहे हैं। परंतु जब राधाजी के चेहरे पर कान्हा जी ने रंग लगाया होगा तब उनकी उम्र 11-12 वर्ष से कम ही रही होगी क्योंकि इस उम्र में ही कंस को मारने मथुरा चले गए। कंस को मार कर अपने नाना उग्रसेन जी को राजगद्दी पर बिठा कर गुरुकुल चले गए। गुरुकुल से लौटने पर जरासंध से जूझते जूझते रण छोड़ कर भाग निकले। मुचुकुंद से कालयवन को भस्म करा कर द्वारिका पहुँच गए। फिर कभी लौटकर ब्रज में नहीं आए और न राधाजी से मिले। प्रेम की प्रतिमूर्ति राधाजी उनके बिना कैसे रहीं, कैसी रहीं, यह न तो किसी कवि ने लिखा और न किसी लेखक ने। परंतु फिर भी ब्रज की होली, बरसाने की लट्ठमार होली और ब्रज के बाहर गोविंदा होली अमर हो गई।
     जन्म लेते ही जिसे मारने की कोशिशें हुई हों, उस कृष्ण ने जिस प्रकार बाल्यावस्था में ही आदर्श स्थापित कर दिए, वे ही उन्हें ईश्वर बनाते हैं।  इंद्र जैसी सामंतवादी ताकत का मुकाबला करके उन्होंने आमजन को संभ्रांत जीना सिखाया। गोवर्धन की पूजा की। गाय और पशुधन का महत्व समझाया, वह भी छोटी सी उम्र में, अपने आप में आज भी एक आदर्श बना हुआ है। अद्भुत प्रतिभा के धनी श्री कृष्ण होली जैसा पर्व मनुष्य को देते हैं कि कैसे पंथ, जाति, ऊँचनीच, लिंग, रंग का भेद किए बिना आनंद में जीया जा सकता है। आपसी शत्रुता को भुलाकर कैसे मित्रता बहाल कर नव जीवन जीया जा सकता है, यह श्रीकृष्ण ने ही सिखाया होली की शुरुआत करके।
     होलिका तो उनसे बहुत पहले जलकर मर गई थी और प्रहलाद अमर हो गए थे। हिरण्यकश्यपु का वध कबका हो चुका था, नृसिंह अवतार कबका धारण किया जा चुका था, कामदेव को भी शिवजी द्वारा कबका भस्म किया जा चुका था परंतु होली को त्यौहार बनाया श्रीकृष्ण ने। बसंत के आगमन, सर्दियों को बिदा और खेतों में उत्पन्न नए अनाज की होली दहन में आहुति देना और फिर उसका इस्तेमाल करने जैसी परंपरा बनाने का उद्देश्य श्रीकृष्ण का कृषि और कृषक की मेहनत का सम्मान देना रहा होगा।
     महान लोग परंपराएं बनाते हैं और उनके बाद के प्रतिष्ठित जन समयानुकूल सुधार करते रहते हैं। मुझे अपना बचपन बहुत अच्छी तरह याद है। एक तो घर में ताला नहीं लगता था केवल सांकल लगा कर निकल जाते थे। अगर कुछ दिनों के लिए घर से बाहर जाना पड़ता था तभी घर के दरवाजे पर ताला लगाया जाता था।  जहाँ तक होली की बात है तो पहले युवा और किशोर वर्ग होली के लिए लकड़ियों का इंतजाम करते। करील बबूल या अन्य कांटेदार पौधों या खरपतवार को इकट्ठा कर होली में रखते। इससे फालतू और हानिकारक पेड़ नष्ट हो जाते। होली जलाते समय खेतों में खड़े गेहूँ जौ व चने के पौधे लाते और उन्हें होली में भूनते। होली में आग लगाने से पहले महिलाएं उसकी पूजा करतीं। घर में जो पकवान बनाए जाते थे उन्हें होली को समर्पित किया जाता। होली में भुने हुए गेहूँ जौ के दाने निकाल कर एक दूसरे को बाँटते और आपस में गले मिलते। महिलाएं गोबर की गूलरी बनातीं और घर में उनकी माला बनाकर ढेर लगातीं और होली जलने के बाद होली में से थोड़ी सी आग लाकर गूलरी के ढेर में आग लगाई जाती।  सुबह उठकर लोग होली दहन के स्थान पर एकत्र होते और होली की धूल हरेक के माथे पर लगाकर एक दूसरे के गले मिलते। फिर टोली बनाकर पूरे गाँव की परिक्रमा लगाते, गीत गाते और ग्राम देवता को माथा नबाते। पूरे गांव में घूम घूम कर नालियों की कीचड़ एक दूसरे पर फेंकते। इससे नालियों की सफाई हो जाती। घर घर जाते और धूल मिट्टी से एक दूसरे का स्वागत करते। जिस किसी से मन मुटाव हो गया हो तो उसके घर अवश्य जाते और बोलते भाई होली सो होली, उसे भूल जाओ और हमें माफ करो और आओ नई शुरुआत करें और उस व्यक्ति को भी साथ ले लेते। जिस किसी घर में गमी हो गई हो तो उसके यहाँ तो अवश्य जाते पर न धूल डालते न कीचड़, सिर्फ मौन रहकर उस परिवार के सभी लोगों को गले लगाते, सांत्वना देते और कहते कि हम हैं कोई चिंता मत करना। शाम के समय रंग से खेलते। पुरुष महिलाओं पर रंग डालते और महिलाएं पैना या डंडे से पिटाई करतीं। हंसी मजाक चलता जिसमें उम्र का कोई बंधन नहीं था।
      निश्चित तौर पर समाज के समझदार लोग लोगों में एकता भाईचारा बढाने के लिए त्यौहार मनाने के ढंग पैदा करते हैं और यह सब अलिखित रहता है। कालांतर में कुत्सित मानसिकता अश्लीलता पैदा कर देती है, होली के बहाने एक दूसरे से दुश्मनी निकालते हैं। राधा कृष्ण को लेकर ही अश्लील गाने तैयार कर लेते हैं और उन्हें बदनाम करते हैं। श्रीकृष्ण तो ब्रज छोड़ने के बाद कभी लौटकर आए ही नहीं। वे तो द्वारिका के भी राजा नहीं बने, मुखियाओं का दल बना दिया, वही सब निर्णय लेते थे और बलराम जी का मार्गदर्शन रहता था। उनके समय में द्वारिका में कोई राजा नहीं था। हाँ सम्मान व प्रेम से उन्हें द्वारिकाधीश अवश्य कहते हैं। आज के समय में शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा हो गया है, कानून व्यवस्था का महत्व भी बढ गया है, व्यक्तिगत अहंमन्यता को दरकिनार कर दिया है तो त्यौहारों को मनाते समय आपसी एकता अखंडता व भाईचारा को बढ़ाने वाले अच्छे उपाय बढ़ने चाहिए। समाज में समरसता के साथ हर आयु के मनुष्य सुखपूर्वक आनंद के क्षणों में अपना समय बिता सकें ऐसे उपाय बढने चाहिए। किसी भी प्रकार से नफरत को बढावा नहीं मिलना चाहिए। श्रीकृष्ण के जीवन से कुछ सीखना है तो याद रखिए कि श्रीकृष्ण जन्म से मृत्यु तक चैन से नहीं बैठ पाए। यहाँ तक उनके मृत शरीर को अग्नि देने वाला भी कोई नहीं बचा था उनके परिवार का।  फिर भी वे मानवता की भलाई के सोचते रहे, कार्य करते रहे।
होली और श्रीकृष्ण का तादात्म्य हमें बहुत कुछ सिखा सकता है।
                           सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड
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