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वियोगी हरि - एक संस्मरण

             वियोगी हरि जी - एक संस्मरण सन् 1969-70 की बात है । मैं श्रीकृष्ण -जन्मस्थान-सेवासंघ मथुरा के कार्यालय में टाइपिंग का कार्य करता था। बारहवीं विज्ञान में अनुत्तीर्ण होने के बाद आगे पढने की गुंजाइश नहीं थी। अंग्रेजी तो क्या क्ष, हिंदी भी ठीक से नहीं आती थी। परंतु हिंदी टाइपिंग का अच्छा अभ्यास था और शॉर्टहैंड भी सीख रहा था। ट्रस्ट के संयुक्त सचिव थे पं देवधर शर्मा शास्त्री। उनकी हिंदी बहुत अच्छी थी। व्यवस्थापक थे श्री बंशीधर उपाध्याय, जो शास्त्री जी की डिक्टेशन लेते थे। धीरे धीरे उनके प्रोत्साहन से मुझमें शास्त्री जी की डिक्टेशन लेने का साहस पैदा हो गया। मेरी हिंदी भी अच्छी होती गई। शास्त्री जी से भय बहुत लगता था क्योंकि हिंदी में जरा भी गलती हो जाए तो बहुत डांटते थे।  काम करते करते यह तो पता चल ही गया था कि पूज्य वियोगी हरि जी सेवासंघ के सचिव थे। बिरला जी के अधिकांश ट्रस्टों के सचिव थे वे। हिंदी पाठ्यक्रम में उनके दोहे और निबंध पढे थे इसलिए उनके प्रति स्वभात: एक अनकही अजीब सी श्रद्धा जाग गई थी। बस प्रतीक्षा थी उनके दर्शनों की।      ट्रस्ट की बैठक हुई, जिसमें ट्रस्ट के अध्य

रेल अस्पताल और इलाज़

                रेल अस्पताल और इलाज      रेल अस्पताल में डॉक्टर के चैंबर के सामने लाइन में खड़ा था कि एक मित्र का फोन आ गया। मैंने बताया कि मैं कहाँ हूँ। मेरे मित्र ने कहा कि सरकार अस्पताल की दवा उतनी प्रभावी नहीं होती, जितनी प्राइवेट डॉक्टर द्वारा लिखी अच्छी कंपनी की दवा। पता नहीं, इस बात में कितनी सच्चाई है और यह धारणा क्यों बनी, परंतु सच यह है कि रेलवे अस्पताल में इलाज कराने का अपना ही आनंद है। केस पेपर बनबाने के लिए लाइन, डॉक्टर के पास जाने के लिए लाइन और फिर दवा लेने के लिए लाइन। लाइन तोड़ने वालों से तू-तू, मैं -मैं, आते जाते परिचितों से बातचीत और नोंकझोंक, अपनी अपनी बीमारी का बखान, केस पेपर बनाने वाले बाबू की शिकायत, डॉक्टरों की बुराई और तारीफ सब कुछ याद आने लगा।      अधिकारी की डायरी जेब में दिखती हुई रखकर कर्मचारियों की लाइन में आगे जाकर खड़े होने की सुविधा कब और कहाँ से पैदा हो गई यह तो नहीं पता लेकिन मुझे यह कतई पसंद नहीं कि जो घंटों से लाइन में खड़े हैं उनसे आगे जाया जाए या सीधे डॉक्टर के पास चला जाया जाए। आम इंसान और आम मरीज बनकर इलाज कराना मुझे अच्छा लगता है। पहले एपीसी और

भ्रष्टाचार मुक्ति

                              हर वर्ष भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने की कसमें खाई जाती हैं, संकल्प किए जाते हैं, कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है पर भ्रष्टाचार है कि न जाने का नाम लेता है और न व्यक्ति को, भारत को, संसार को मुक्त करता है। यही नहीं नए-नए रूपों में देश में, प्रदेश में, समाज में प्रवेश करता रहता है। वैसे देखा जाए तो देश, प्रदेश व समाज तो जड़ हैं और जड़ता में कोई प्रवेश नहीं कर सकता। भ्रष्टाचार की क्या औकात है? जो कुछ होता है चेतन में होता है, जो कुछ करता है वह चेतन करता है। पता नहीं व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार न करने, न सहने की कसम खाता है या नहीं। सामूहिक रूप से अवश्य कसम खाता है। व्यक्तिगत रूप से कसम खा ले तो भ्रष्टाचार रहेगा कहाँ?       व्यक्ति के मन में, सोच में ही सब कुछ रहता है और जब वह कार्यरूप में परिणत होता है तब दिखाई देता है कि कुछ हुआ। भ्रष्टाचार एक व्यक्ति करता है, दूसरा सहता है, तीसरा दुखी होता है और चौथा कसम खाता है। यह कैसी विडम्बना है। लेकिन भ्रष्टाचार होता क्या है। कल मेरी बडे भाईसाहब से बात हो रही थी। वे बता रहे थे कि मैं पैंशन के लिए जीवन प्रमाण
                 जैसी करनी वैसी भरनी      जैसी करनी वैसी भरनी, टीवी में एक बाल कलाकार जब गा रहा था कब मैं खाना खा रहा था और जीभ पर दाँत उस जगह लगा जहाँ पटले जीभ काट दी थी। खाते खाते मैं सुन्न हो गया।  मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है कि एक बार जहाँ जीभ कट जाती है वहीं दंत महाशय प्रहार करते हैं। थोड़ी राहत मिली और मैं सोचने लायक हुआ तो सबसे पहले यही खयाल आया कि ऐसा मैंने कर दिया जो ऐसा फल मिला है। न जीभ से कुछ कहा न ही दाँत से। उन दोनों में अनबन है तो मैं क्या करूं?  दाँत का धर्म ही काटना है तो जीभ के भाग्य में भी सहना  बदा है। लेकिन तकलीफ मुझे महसूस होती है। दाँत को काटना है, काटे, जीभ को सहना है सहे, मैं इनके बीच कहाँ से आ गया। मैंने ऐसा कौन सा कर्म किया जो तकलीफ मुझे महसूस होती है।      ऐसे ही एक दिन सुबह बाजार जा रहा था कि सड़क किनारे चबूतरे पर बैठे दो मित्रों ने आवाज लगा कर अपने पास बुला लिया। वे आपस में बहस कर रहे थे। एक कह रहा था कि तू पप्पू है और दूसरा कह रहा था कि तू कौन सा मोदी है?  दोनों हाथ फैला कर चिल्लाए जा रहे थे। मैंने दोनों को रोका और कहा कि भई मैं तो आज़ाद हूँ।  दोनों अपन

हिंदी दिवस 2

 अभी अभी मैंने हिंदी दिवस पर ब्लॉग लिखा जिसमें अपनी भूल जाहिर की कि मैं एक दिन हिंदी दिवस ही भूल गया। पर हिंदी दिवस के दिन सभी को शुभकामनाएँ दीं। मेरे ब्लॉग में समाहित दिनेश पाठक शशि की पोस्ट पर काफी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की नई दिल्ली से डॉ सोमदत्त शर्मा ने  मुंबई से डॉ वीरेंद्र कुमार मिश्र ने प्रतिक्रिया स्वरूप कई तथ्य उजागर कर दिए, जिन्हें मैं यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-  " इसके साथ कुछ और स्मरण हो रहा है। १. सोवियत संघ में स्वतंत्र भारत (उस समय यह भारतवर्ष था, इंडिया नहीं) की पहली राजदूत  जवाहरलाल नेहरू की बहन पंडित विजयलक्ष्मी ने जब वहां पहुंच कर अपना परिचय पत्र अंग्रेजी में दिया तो सोवियत सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया, और कहा कि आप अपनी राजभाषा में यह परिचय पत्र दें। रातों रात विशेष विमान से हिंदी में परिचय पत्र भेजा गया उसके पश्चात ही उन्हें राजदूत मान कर राजदूतावास में प्रवेश दिया गया। २. शशी कपूर ने अपनी फिल्म *३६ चौरंगी लेन* जब विश्व फिल्म फेस्टिवल में भेजी तो वह यह कह कर वापस कर दी गई कि आप अपने देश की (राज)भाषा की फिल्म भेजें, अंग्रेज़ी की बहुत फिल्में यहां हैं। ३. तत्का

होली और श्रीकृष्ण

                                            होली विशेषकर रंगों की होली, आनंद की होली ब्रज में श्रीकृष्ण से शुरू होकर पूरे विश्व में फैल गई।  वैसे तो होली की मुख्य कहानी प्रहलाद और होलिका की है, शिवजी द्वारा कामदेव को भस्म करने और जीवित करने की है परंतु रंगों से सामने वाले को सराबोर कर देना श्री कृष्ण से ही शुरू हुई। श्री कृष्ण जब राधाजी के रूप से चिढते हैं, पूतना को मार उसके विषपान से और काले हो जाते हैं तो स्वयं गोरा होने का प्रयास नहीं करते वरन् राधाजी के गोरेपन की शिकायत यशोदा जी से करते हैं। माँ कह देती हैं कि जा तू राधा के मुँह पर कोई भी रंग मल दे। और अपनी मित्र मंडली के साथ दौड़ लगा देते हैं बरसाने की ओर। राधाजी और अन्य गोपियों को विभिन्न रंगों से रँग देते हैं। गोपियाँ कहाँ पीछे रहने वाली थीं, वे भी कृष्ण का कालापन दूर करने में लग जाती हैं और वर्ष में एक दिन एक दूसरे पर रंग डालने की प्रथा होली बन जाती है।       लेखकों कवियों ने श्रीकृष्ण और राधा जी की लीलाओं पर खूब लिखा, आज भी लिख रहे हैं। परंतु जब राधाजी के चेहरे पर कान्हा जी ने रंग लगाया होगा तब उनकी उम्र 11-12 वर्ष से कम ही

अठखेलियाँ

 जीवन अपने आप से ही अठखेलियाँ खेलता है। पचास साल के वैवाहिक जीवन में पत्नी जी पहली बार बीमार ही नहीं हुई अस्पताल में भर्ती भी हो गई। मानो तूफान आ गया। मैं तीस पैंतीस साल से डायबिटीज, स्पांडलाइटिस व अवसाद से जूझ रहा हूँ पर कोई बीमार ही नहीं मानता। पत्नी जी बीमार हुईं तो मुझे भी लगा कि मैं वास्तव में दोगुना बीमार हो गया पर साथ ही उनकी सेवादारी में अपनी बीमारी भूल ही गया। एक अनजाने भय से ग्रस्त हो गया कि पत्नी जी चली गई तो मेरा क्या होगा। अचानक ही आसमान की ओर हाथ उठ जाते हैं कि हे पालनहारे ऐसा न करना। जोड़ी बिछड़े न। विदा हो तो एक साथ। सत्येंद्र सिंह